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Wednesday, May 20, 2009

* वास्तु के वैज्ञानिक आधार *


-आचार्य रंजन , वास्तु विशेषज्ञ ,बेगुसराय

आदिकाल से हिन्दू धर्म ग्रंथों में चुम्बकीय प्रवाहों , दिशाओं , वायु प्रवाह एवं गुरुय्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तुशास्त्र की रचना की गयी तथा यह पाया गया की इन नियमों का पालन करने से मनुष्य के जीवन में शुख ,शांति एवं धन-धान्य की वृद्धि होती है ।

वास्तु वस्तुतः पृथ्वी , जल , आकाश ,वायु और अग्नि इन पञ्च-तत्वों के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है । इसके सही सम्मिश्रण से ' बायो-इलैक्ट्रिक-मग्नेटिक-एनर्जी 'की उत्त्पत्ति होती है , जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य ,शांति , धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।

भूलोक में समस्त जीवों ,पेड़-पौधों के जीवन का आधार सूर्य है अर्थात सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का श्रोत है यही सूर्य जब उदित होता है तब सम्पूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरम्भ होता है , क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है , इसलिए भवन निर्माण में सूर्य-उर्जा , वायु-उर्जा , चंद्र-उर्जा आदि का प्रभाव प्रमुख माना जाता है ।

मनुष्य को मकान इस प्रकार से बनाना चाहिए जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हों ताकि वह प्राकृतिक उर्जा श्रोतों का इस्तमाल ज्यादा से ज्यादा कर अपना एवं समाज का कल्याण कर सके ।


पूर्व में उदित होनेवाले सूर्य की किरणों का प्रवेश भवन के प्रत्येक भाग में होना चाहिए ताकि मनुष्य उर्जा को प्राप्त कर सके क्योंकि सूर्य की प्रातः कालीन किरणों में विटामिन डी का बहुमूल्य श्रोत होता है जिसका प्रभाव हमारे शारीर पर रक्त के माध्यम से सीधा पड़ता है । इसी तरह मध्याह्न के पश्चात सूर्य की किरणे रेडियो-धर्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर विपरीत प्रभाव डालती है । इसलिए भवन-निर्माण करते समय भवन का ओरीएँ टेसन इस प्रकार से रखा जाना चाहिए जिससे मध्यंत सूर्य की किरणों का प्रभाव शारीर पर कम से कम पड़े ।




दक्षिण-पश्चिम भाग के अनुपात में भवन-निर्माण करते समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात की सतह को इसलिए नीचा रखा जाता है क्योंकि इसका मुख्या उद्देश्य सूर्य की किरणों में प्रातः काल के समय विटामिन डी ,एफ एवं विटामिन A रहता है और इसके निचे रहने से प्रातःकालीन सूर्य की किरणों का लाभ पूरे भवन को प्राप्त होता रहेगा ।


दक्षिण-पश्चिम भाग में भवन को अधिक ऊंचा बनाने तथा मोटी दीवार बनाने का तथा सीढियों आदि का भार भी इसी दिशा में रखना , भारी मशीनरी , भारी सामान का स्टोर आदि भी बनाने का प्रमुख कारण यह है की जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणी दिशा में करती है तो वह एक विशेष कोणीय स्थिति में होती है । अतः इस क्षेत्र में अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है तथा सूर्य की गर्मी इस भाग में होने के कारण सूर्य की गर्मी से भी बचा जा सकता है गर्मी में इस क्षेत्र में ठंढक .तथा

सर्दी में गर्मी का अनुभव भी किया जा सकता है ।


आग्नेय (दक्षिण-पूर्वी ) कोण में रसोई बनाने का प्रमुख कारण यह है , क्योंकि सुबह में पूर्व से सूर्य की किरणें विटामिन युक्त होकर दक्षिणी क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती है , क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओ़र करती है । अतः आग्नेयकों की स्थिति में इस भाग को अधिक सूर्य की किरणें विटामिन एफ एवं डी से युक्त अधिक समय तक मिलती रहे तो रसोई में रखे खाद्य पदार्थ शुद्ध होते रहेंगे और इसके साथ साथ सूर्य की गर्मी से पश्चिमी दिवार की नमी के कारण विद्यमान हानिकारक कीटाणु नष्ट होते रहते हैं ।


उत्तरी-पूर्वी भाग अर्थात ईशान कोण में आराधना - स्थल या पूजा-स्थल रखने का प्रमुख कारण यह है की पूजा करते समय मनुष्य के शारीर पर अधिक वस्त्र न रहने के कारण प्रातः कालीन सूर्य की किरणों के माध्यम से शारीर में विटामिन 'डी' नैसर्गिक अवस्था में प्राप्त हो जाती है और उत्तरी क्षेत्र से पृथ्वी की चुम्बकीय उर्जा का अनुकूलन प्रभाव भी पवित्र माना जाता है ,अतः अन्तरिक्ष से हमें कुछ अलौकिक शक्ति मिलती रहे इसलिए इस क्षेत्र को अधिक खुला भी रखा जाता है ।

उत्तर - पूर्व में आने वाले पानी के श्रोत का प्रमुख आधार यह है की पानी में प्रदुषण जल्दी लगता है और पूर्व से ही सूर्य उदय होने के कारण सूर्य की किरणे जल पर पड़ती है, जिसके कारण इलेक्ट्रो - मग्नेटिक - सिद्धांत के द्वारा जल को सूर्य से ताप प्राप्त होता है और उसी के कारण जल शुद्ध रहता है । दक्षिण दिशा में सर रखकर सोने का प्रमुख कारण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का मानव पर पड़ने वाला प्रभाव ही है। चूँकि चुम्बकीय किरणे उत्तरी-ध्रुव से दक्षिणी -ध्रुव की तरफ चलती है और मनुष्य के शारीर में जो चुम्बकीय क्षेत्र है वह भी सर से पैर की तरफ होता है , इसीलिए मानव के सर को उत्तरायण एवं पैर को दक्षिणायन माना जाता है । अतः यदि सर को उत्तर की और रखेंगे तो चुम्बकीय प्रभाव नहीं होगा क्योंकि पृथ्वी के क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव मानव के उत्तरी पोल ध्रुव से रिपल्सन करेगा और चुम्बकीय प्रभाव अस्वीकार करेगा जिससे शरीर के रक्त - संचार के लिए उचित और अनुकूल चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिल सकेगा परिणामतः मष्तिष्क में तनाव होगा और शरीर को शांतिमय निंद्रा नहीं आएगी ।

विस्तार में लिखना संभव नहीं है अतः संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा की आवासीय एवं व्यव्शायिक भवन - निर्माण करते समय यदि पांच तत्वों - आकाश , वायु , अग्नि ,जल एवं पृथ्वी - को समझकर इनका यथोचित ध्यान रखा जाये , तो ब्रह्माण्ड की अत्यंत शक्तियों का अद्भूत उपहार हमारे समस्त जीवन को सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक होंगे ।

*नोट :- कृपया भवन - निर्माण के पूर्व किसी अच्छे वास्तु - विशेषज्ञ से सलाह अवश्य ले लिया करें ताकि आपके भूमि / भवन में सभी दिशाओं या बिन्दुओं का वास्तविक पोजिसन का पता चल सके और आप वास्तु के सिधान्तों का पूर्ण लाभ उठा सकें - आचार्य रंजन (वास्तु सलाहाकार एवं विशेषज्ञ ),प्रोफेसर कालोनी , बेगुसराय , बिहार
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