" ज्योतिष एवं वास्तु से सम्बंधित इस ब्लॉग पर आपको ' आचार्य रंजन ' का नमस्कार !! "

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Wednesday, May 20, 2009

* वास्तु के वैज्ञानिक आधार *


-आचार्य रंजन , वास्तु विशेषज्ञ ,बेगुसराय

आदिकाल से हिन्दू धर्म ग्रंथों में चुम्बकीय प्रवाहों , दिशाओं , वायु प्रवाह एवं गुरुय्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तुशास्त्र की रचना की गयी तथा यह पाया गया की इन नियमों का पालन करने से मनुष्य के जीवन में शुख ,शांति एवं धन-धान्य की वृद्धि होती है ।

वास्तु वस्तुतः पृथ्वी , जल , आकाश ,वायु और अग्नि इन पञ्च-तत्वों के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है । इसके सही सम्मिश्रण से ' बायो-इलैक्ट्रिक-मग्नेटिक-एनर्जी 'की उत्त्पत्ति होती है , जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य ,शांति , धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।

भूलोक में समस्त जीवों ,पेड़-पौधों के जीवन का आधार सूर्य है अर्थात सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का श्रोत है यही सूर्य जब उदित होता है तब सम्पूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरम्भ होता है , क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है , इसलिए भवन निर्माण में सूर्य-उर्जा , वायु-उर्जा , चंद्र-उर्जा आदि का प्रभाव प्रमुख माना जाता है ।

मनुष्य को मकान इस प्रकार से बनाना चाहिए जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हों ताकि वह प्राकृतिक उर्जा श्रोतों का इस्तमाल ज्यादा से ज्यादा कर अपना एवं समाज का कल्याण कर सके ।


पूर्व में उदित होनेवाले सूर्य की किरणों का प्रवेश भवन के प्रत्येक भाग में होना चाहिए ताकि मनुष्य उर्जा को प्राप्त कर सके क्योंकि सूर्य की प्रातः कालीन किरणों में विटामिन डी का बहुमूल्य श्रोत होता है जिसका प्रभाव हमारे शारीर पर रक्त के माध्यम से सीधा पड़ता है । इसी तरह मध्याह्न के पश्चात सूर्य की किरणे रेडियो-धर्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर विपरीत प्रभाव डालती है । इसलिए भवन-निर्माण करते समय भवन का ओरीएँ टेसन इस प्रकार से रखा जाना चाहिए जिससे मध्यंत सूर्य की किरणों का प्रभाव शारीर पर कम से कम पड़े ।




दक्षिण-पश्चिम भाग के अनुपात में भवन-निर्माण करते समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात की सतह को इसलिए नीचा रखा जाता है क्योंकि इसका मुख्या उद्देश्य सूर्य की किरणों में प्रातः काल के समय विटामिन डी ,एफ एवं विटामिन A रहता है और इसके निचे रहने से प्रातःकालीन सूर्य की किरणों का लाभ पूरे भवन को प्राप्त होता रहेगा ।


दक्षिण-पश्चिम भाग में भवन को अधिक ऊंचा बनाने तथा मोटी दीवार बनाने का तथा सीढियों आदि का भार भी इसी दिशा में रखना , भारी मशीनरी , भारी सामान का स्टोर आदि भी बनाने का प्रमुख कारण यह है की जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणी दिशा में करती है तो वह एक विशेष कोणीय स्थिति में होती है । अतः इस क्षेत्र में अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है तथा सूर्य की गर्मी इस भाग में होने के कारण सूर्य की गर्मी से भी बचा जा सकता है गर्मी में इस क्षेत्र में ठंढक .तथा

सर्दी में गर्मी का अनुभव भी किया जा सकता है ।


आग्नेय (दक्षिण-पूर्वी ) कोण में रसोई बनाने का प्रमुख कारण यह है , क्योंकि सुबह में पूर्व से सूर्य की किरणें विटामिन युक्त होकर दक्षिणी क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती है , क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओ़र करती है । अतः आग्नेयकों की स्थिति में इस भाग को अधिक सूर्य की किरणें विटामिन एफ एवं डी से युक्त अधिक समय तक मिलती रहे तो रसोई में रखे खाद्य पदार्थ शुद्ध होते रहेंगे और इसके साथ साथ सूर्य की गर्मी से पश्चिमी दिवार की नमी के कारण विद्यमान हानिकारक कीटाणु नष्ट होते रहते हैं ।


उत्तरी-पूर्वी भाग अर्थात ईशान कोण में आराधना - स्थल या पूजा-स्थल रखने का प्रमुख कारण यह है की पूजा करते समय मनुष्य के शारीर पर अधिक वस्त्र न रहने के कारण प्रातः कालीन सूर्य की किरणों के माध्यम से शारीर में विटामिन 'डी' नैसर्गिक अवस्था में प्राप्त हो जाती है और उत्तरी क्षेत्र से पृथ्वी की चुम्बकीय उर्जा का अनुकूलन प्रभाव भी पवित्र माना जाता है ,अतः अन्तरिक्ष से हमें कुछ अलौकिक शक्ति मिलती रहे इसलिए इस क्षेत्र को अधिक खुला भी रखा जाता है ।

उत्तर - पूर्व में आने वाले पानी के श्रोत का प्रमुख आधार यह है की पानी में प्रदुषण जल्दी लगता है और पूर्व से ही सूर्य उदय होने के कारण सूर्य की किरणे जल पर पड़ती है, जिसके कारण इलेक्ट्रो - मग्नेटिक - सिद्धांत के द्वारा जल को सूर्य से ताप प्राप्त होता है और उसी के कारण जल शुद्ध रहता है । दक्षिण दिशा में सर रखकर सोने का प्रमुख कारण पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का मानव पर पड़ने वाला प्रभाव ही है। चूँकि चुम्बकीय किरणे उत्तरी-ध्रुव से दक्षिणी -ध्रुव की तरफ चलती है और मनुष्य के शारीर में जो चुम्बकीय क्षेत्र है वह भी सर से पैर की तरफ होता है , इसीलिए मानव के सर को उत्तरायण एवं पैर को दक्षिणायन माना जाता है । अतः यदि सर को उत्तर की और रखेंगे तो चुम्बकीय प्रभाव नहीं होगा क्योंकि पृथ्वी के क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव मानव के उत्तरी पोल ध्रुव से रिपल्सन करेगा और चुम्बकीय प्रभाव अस्वीकार करेगा जिससे शरीर के रक्त - संचार के लिए उचित और अनुकूल चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिल सकेगा परिणामतः मष्तिष्क में तनाव होगा और शरीर को शांतिमय निंद्रा नहीं आएगी ।

विस्तार में लिखना संभव नहीं है अतः संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा की आवासीय एवं व्यव्शायिक भवन - निर्माण करते समय यदि पांच तत्वों - आकाश , वायु , अग्नि ,जल एवं पृथ्वी - को समझकर इनका यथोचित ध्यान रखा जाये , तो ब्रह्माण्ड की अत्यंत शक्तियों का अद्भूत उपहार हमारे समस्त जीवन को सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक होंगे ।

*नोट :- कृपया भवन - निर्माण के पूर्व किसी अच्छे वास्तु - विशेषज्ञ से सलाह अवश्य ले लिया करें ताकि आपके भूमि / भवन में सभी दिशाओं या बिन्दुओं का वास्तविक पोजिसन का पता चल सके और आप वास्तु के सिधान्तों का पूर्ण लाभ उठा सकें - आचार्य रंजन (वास्तु सलाहाकार एवं विशेषज्ञ ),प्रोफेसर कालोनी , बेगुसराय , बिहार

Monday, May 18, 2009

* होम या हवन आदि में अग्निवास जानना *

-आचार्य रंजन , बेगुसराय (बिहार )

कोई भी अनुष्ठान के पश्चात हवन करने का शास्त्रीय विधान है और हवन करने हेतु भी कुछ नियम बताये गए हैं जिसका अनुसरण करना अति - आवश्यक है , अन्यथा अनुष्ठान का दुष्परिणाम भी आपको झेलना पड़ सकता है । इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है हवन के दिन 'अग्नि के वास ' का पता करना ताकि हवन का शुभ फल आपको प्राप्त हो सके ।
जिस दिन आपको होम करना हो , उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर १ जमा करें फिर कुल जोड़ को ४ से भाग देवें

-यदि शेष शुन्य (०) अथवा ३ बचे , तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन होम करना कल्याणकारक होता है ।

-यदि शेष २ बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन होम करने से धन का नुक्सान होता है ।

-यदि शेष १ बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा , इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है ।

अतः यह आवश्यक है की होम में अग्नि के वास का पता करने के बाद ही हवन करें ।

* वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए तदुपरांत गृह के 'मुख-आहुति-चक्र ' का विचार करना चाहिए इसके लिए किसी योग्य ज्योतिषी से परामर्श कर लें *

* यात्रा आदि में शुभ एवं अशुभ मुहूर्त विचार *

रविवार -
शुभ दिशाएं -- पूर्व , उत्तर ,आग्नेय (दक्षिण-पूर्व )

अशुभ दिशाएं - पश्चिम , वायव्य (उत्तर-पश्चिम )


सोमवा -
शुभ दिशाएं --- पश्चिम , दक्षिण , वायव्य

अशुभ दिशाएं -- पूर्व , उत्तर , आग्नेय


मंगलवार -
शुभ दिशाएं --- दक्षिण-पूर्व

अशुभ दिशाएं -- उत्तर , पश्चिम , वायव्य


बुधवार -
शुभ दिशाएं --- दक्षिण ,पूर्व , नैर्रित्य (दक्षिण-पश्चिम)

अशुभ दिशाएं - उत्तर , पश्चिम ,ईशान (पूर्व-उत्तर)


गुरूवार -
शुभ दिशाएं --- पूर्व , उत्तर , ईशान

अशुभ दिशाएं - दक्षिण , पूर्व , नैर्रित्य


शुक्रवार -
शुभ दिशाएं -- पूर्व , उत्तर , ईशान

अशुभ दिशाएं - पश्चिम , दक्षिण , नैर्रित्य


शनिवार -
शुभ दिशाएं --- पश्चिम , दक्षिण , नैर्रित्य

अशुभ दिशाएं - पूर्व , उत्तर , ईशान

* उपरोक्त दिनों में शुभ दिशाओं का ही चयन करना चाहिए , परन्तु यदि किसी कारण से यात्रा के दिन इनमें से शुभ दिशा का चयन नहीं कर पा रहें हो तथा आपको उस दिन यात्रा करना अनिवार्य ही हो तो किसी नजदीकी ज्योतिषी से संपर्क कर शुभ होरा का पता कर ही यात्रा करें और इसके साथ साथ निम्न बातों पर भी अमल कर बेझिझक यात्रा करें -


-- रविवार को दलिया एवं घी खाकर ,

-- सोमवार को दर्पण देखकर या दूध पीकर ,

-- मंगलवार को गुड खाकर ,

-- बुधवार को धनिया या तिल खाकर ,

-- गुरूवार को दही खाकर ,

-- शुक्रवार को जौ खाकर या दूध पीकर और

-- शनिवार को अदरख या उरद खाकर प्रस्थान किया जा सकता है ।


- आचार्य रंजन (ज्योतिषाचार्य एवं वास्तु विशेषज्ञ ), बेगुसराय , बिहार ,Mo -09431236090 & Tel- 06243-243901

Thursday, May 14, 2009

* ग्रहण विवरण (सन् 2009 - 10 ई0 ) *



* खग्रास सूर्यग्रहण ( भारत में दृश्य ) - 22 , जुलाई , 2009 ई0 , बुधवार *

भूलोक में यह खग्रास सूर्यग्रहण भारतीय स्टैण्डर्ड टाइम के अनुसार प्रातः 5 घंटा 28 मिनट से प्रारंभ होकर प्रातः 10 घंटा 42 मिनट पर समाप्त हो जायेगा ।
( इस ग्रहण का सूतक सामान्यतः 21 जुलाई ,09 के सूर्यास्त से प्रारंभ हो स्पर्श काल से ठीक 12 घंटे पूर्व लगभग 17 घंटा 28 मिनट से प्रारंभ हो जायेगा । )



* खग्रास चंद्रग्रहण ( भारत में दृश्य ) - 31 दिसम्बर, 2009 ई. , गुरूवार *

भारत में खंडग्रास के रूप में 31 दिसम्बर , 2009 को रात्रि 12 बजकर 22 मिनट पर यह चन्द्र ग्रहण शुरू होकर रात्रि 1 बजकर 24 मिनट पर समाप्त होगा । भारत के सभी नगरों में इसे देखा जा सकेगा ।

( ग्रहण का सूतक 31 दिसम्बर , 2009 को ही दोपहर 3 बजकर 22 मिनट पर प्रारंभ हो जायेगा । )


* कंकन सूर्यग्रहण ( भारत में दृश्य ) - 15 जनवरी , 2010 ई. , शुक्रवार *

पृथ्वी पर भारतीय स्टैण्डर्ड टाइम के अनुसार यह ग्रहण सुबह 9 बजकर 35 मिनट से प्रारंभ होकर दोपहर 3 बजकर 38 मिनट पर समाप्त हो जायेगा ।

इस सूर्यग्रहण की कंकनाकृति भारत के दक्षिणी भागों - रामेश्वरम , कन्याकुमारी तथा तिरुवनंतपुरम ( केरल , तमिलनाडु के दक्षिणी भागों में ) आदि कुछ नगरों में ही दिखाई देगा , शेष सारे भारत में यह सूर्यग्रहण खंद्ग्राश रूप में ही दिखाई देगा ।
( इस ग्रहण का सूतक 14 जनवरी , 2010 की रात्रि लगभग 11 बजकर 58 मिनट से ही प्रारंभ हो जायेगा । )

* ग्रहण काल में कृत्य - अकृत्य *
ग्रहण काल में स्नान आदि करके इष्टदेव , भगवान् सूर्यदेव की पूजा , पाठ , पितृ-तर्पण ,वैदिक मंत्रों , आदित्यहृदय स्त्रोत , सुर्यश्टक स्त्रोत , गायत्री मंत्र आदि का पाठ करना चाहिए ।
ग्रहण काल में पहले से पकाया हुआ अन्न भी नहीं खाना चाहिए । नरकट ,दूध - दही , मट्ठा , घी का पका अन्न और मणि में रखा जल , तिल या कुश डालने पर अपवित्र नहीं होते और ना ही गंगा जल अपवित्र होता है ।
ग्रहण उपरांत अन्न , जल ,वस्त्र , फलों आदि का दान सुपात्र को देना चाहिए ।
अर्थात , ग्रहण काल में स्पर्श के समय स्नान , मध्य में होम और देव पूजन और ग्रहण मोक्ष के समय में श्राद्ध और अन्न , वस्त्र , धन आदि का दान एवं सर्वमुक्त होने पर स्नान करना चाहिए - यही क्रम है ।
- आचार्य रंजन (ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ ),बेगुसराय ,बिहार

Tuesday, May 12, 2009

*सुखी दांपत्य जीवन हेतु उपाय *


1- यदि पति-पत्नी दोनों एक-दूसरे के मनो भावों को नहों सनाझते , छोटी - छोटी बातों से वैमनष्य एवं अशांति पैदा हो रही हों , तो प्रातः नित्यकर्म से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके किसी मंदिर में जाकर शिवलिंग की पूजा करके निम्न मंत्र की पांच माला जप करें -

" ॐ नमः सम्भवाय च मयो भवाय च नमः शंकराय

मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च !! "

२- दांपत्य जीवन में प्रेम की वृद्धि के लिए पति द्वारा भोजन करने के बाद उसके बचे भोजन में से एक निवाला पत्नी अवश्य खाएं , किन्तु अपने बचे भोजन में से उसे न खाने दें।

३- जो स्त्री शनिवार को चमेली के तेल का दीपक जलाकर 'श्री सुन्दरकाण्ड ' का पाठ करती है ,उसका दांपत्य जीवन सुखों से युक्त रहता है ।
४ - दांपत्य जीवन में मधुरता हेतु पति-पत्नी लगभग एक वजन का 'फिरोजा 'रत्न -जडित दो अंगूठी बनवाकर शुक्रवार के दिन विधिवत रत्न का प्राण-प्रतिष्ठा के उपांत धारण करें ।
- आचार्य रंजन (ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ ),बेगुसराय ,बिहार

* ॠण ( क़र्ज़ ) मुक्ति हेतु उपाय *

१- निम्न स्त्रोतों में से किसी का भी नियमित पाठ करने से आय के साधनों में वृद्धि , यदि कोई धन दबाकर बैठ गया हो ,तो वह लौटने को भी विवश हो सकता है --श्री कनकधारा स्त्रोत , ऋण-हर्ता गणपति स्त्रोत , ऋण-मोचक मंगल स्त्रोत , श्री सूक्त पाठ , गजेन्द्र मोक्ष एवं कुबेर मंत्र का पाठ करें ।

२- ऋण मुक्ति के लिए बुधवार को गाय को हरी घास अवश्य खिलाये । यदि ऋण मुक्ति के बाद भी खिलाते रहेंगे तो आपका व्यवसाय और अधिक उन्नति करेगा ।

3 - बुधवार को किसी श्री गणेश मंदिर में जाकर मोदक का भोग अर्पित करें तथा ११ परिक्रमा करें । परिक्रमा के समय 'ॐ गं गणपतये नमः ' का जप करें ।

४- जब तक ऋण पूर्ण रूप से समाप्त न हो जाये तब तक नियमित रूप से पीपल वृक्ष को जल अर्पित करें और उसके गीली मिटटी से तिलक करें । इसके प्रभाव से भी आप शीघ्र क़र्ज़ मुक्त होंगे ।

-आचार्य रंजन (ज्योतिष एवं वास्तु विशेषज्ञ ),बेगुसराय ,बिहार

Thursday, May 7, 2009

* मंगली दोष एवं उसके निवारण हेतु उपाय *



शास्त्रों के अनुसार यदि कुंडली में जन्म लग्न से प्रथम , चतुर्थ , सप्तम , अष्टम एवं द्वादश भावों में मंगल ग्रह स्थित हो तो मंगल-दोष या मांगलिक-दोष या कुज-दोष या जातक मंगला या मंगली कहलाता है ।


कुछ आचार्यों के अनुसार , यदि जन्म-लग्न के अतिरिक्त चन्द्र-लग्न , सूर्य-लग्न एवं शुक्र या सप्तमेश से कुंडली में उपरोक्त स्थानों पर भी यदि मंगल-ग्रह स्थित हो तो मंगली-दोष या मंगला-दोष होता है । साथ ही यदि द्वितीय स्थान में भी मंगल - ग्रह हो तो भी मंगल-दोष होता है।


मंगली दोष वैवाहिक - जीवन को विभिन्न तरह से प्रभावित करता है - विवाह में विच्छेद , विलंब , व्यवधान या धोखा , विवाहोपरांत दम्पति में से किसी एक या दोनों को शारीरिक , मानसिक अथवा आर्थिक कष्ट , पारस्परिक मन-मुटाव , आरोप-प्रत्यारोप तथा विवाह - विच्छेद । अगर दोष बहुत प्रवल हुआ तो दोनों या किसी एक की मृत्यु हो सकती है ।


फिर भी मंगली दोष से भयभीत या आतंकित नहीं होना चाहिए । प्रयास यह करना चाहिए की मंगली का विवाह मंगली से ही हो , क्योंकि मंगल-दोष साम्य होने से वह प्रभावहीन हो जाता है तथा दोनों सुखी रहते हैं । कई कई बार कुंडली में कुछ ऐसा भी योग बन जाता है जिससे मंगल दोष होने के बावजूद भी मंगल दोष नहीं रहता है और ऐसे परिस्थिति में मंगला या मंगली होने के बावजूद भी वह बिना मंगला या मंगली से शादी कर सुखिमय विवाहित जीवन बिता सकता है ।


अतः वास्तव में आप मंगला या मंगली हैं या नहीं इसके लिए किसी अच्छे ज्योतिषी से परामर्श कर लेना चाहिए । वैसे व्यवहारिकता में देखा गया है की ९०% कुंडली में मंगली योग भंग ही रहता है यानि दोष होने के बाद भी दोष समाप्त ही रहता है । उपाय के तौर पर मंगल देव की पूजा अर्चना एवं मंगल ग्रह का *जाप इत्यादि करना चाहिए तथा लाल रंग से पूर्णतया परहेज करना चाहिए तथा इसी साईट पर मंगल ग्रह हेतु बताये गए उपाय करना चाहिए ताकि मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव में काफी हद तक कमी लाया जा सके ।


नोट : जाप हेतु मंत्र की जानकारी के लिए मेरे 'ओल्डर पोस्ट ' देखें तथा विस्तृत जानकारी एवं उपाय हेतु 100% free on-line संपर्क कर सकते हैं .- आचार्य रंजन ( ज्योतिषाचार्य & वास्तु विशेषज्ञ ), न्यू प्रोफ़ेसर कोलोनी , दिनकर नगर ,बेगुसराय (बिहार) मो. न. +91-9431236090 & टे. न. 06243-243901

Wednesday, May 6, 2009

* सोमवती अमावश्या के दिन पीपल के पेड़ की परिक्रमा करने की विधि एवं महात्म्य *


जातक (कर्ता) सबसे पहले पीपल पर दुग्ध-मिश्रित जल अर्पण करे और ह्रदय से भगवान् विष्णु को नमस्कार करें , इसके बाद दायें तरफ घी का एवं बांयें तरफ तेल का दीपक तथा धूप जलाएं । तेल के दीपक के निचे उड़द और काले तिल रखें , घी के दीपक के नीचे चने की दाल और गुड रखें । इसके बाद पीपल की जड़ में ही गणपति का ध्यान करें और सम्पूर्ण पाप-निवृति हेतु संकल्प करें । तदोपरांत जड़ में ही सूक्ष्म गणपति पूजन करें और पीपल को विष्णुमय समझते हुए षोडशोपचार से पूजन - प्रार्थना करें । इसके बाद परिक्रमा प्रारंभ करें । प्रत्येक परिक्रमा में एक घी की बत्ती जलते हुए घी के दीपक में जलाएं । एक मिठाई व एक फल पीपल को स्पर्श कर पात्र में रखें इसके साथ-साथ दुग्ध-मिश्रित जल व फूल भी पीपल की जड़ में चढाते रहें और सूत लपेटते हुए परिक्रमा करें । परिक्रमा के दौरान अनवरत रूप से "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " , इस द्वादश अक्षर मंत्र का जाप अवश्य करते रहना चाहिए । इसी प्रकार १०८ परिक्रमा सम्पूर्ण करें । तदोपरांत पीपल को पकड़कर प्रार्थना करें । परिक्रमा उपरांत पात्र के प्रसाद को वितरित करें स्वयं भी ग्रहण करें कारण की यह भगवान् विष्णु का प्रसाद है ।

सोमवती अमावश्या को किया गया यह प्रयोग तुंरत फलदायी होता है , कारण पीपल-वृक्ष में सभी देवी-देवताओं का वास माना गया है। और हमारे शास्त्रों में साक्षात् 'विष्णु-रूप ' की संज्ञा दी गयी है । अतः यह प्रयोग मानव को रोगों से मुक्ति दिलाता है , विद्यार्थी को पूर्ण विद्या की प्राप्ति होती है ,विवाह की सभी रुकावटें दूर होती है, कारोबार में वृद्धि होती है ,उजडा हुआ घर पुनः वस् जाता है एवं मानव जघन्य पापों से मुक्त हो जाता है , उसकी सारी मुसीबतें समाप्त हो जाती है और उस व्यक्ति के मस्तिष्क में अखंड शांति की अनुभूति होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यदि देखा जाये तो पीपल एक ऐसा वृक्ष है जो चौबीस घंटे ऑक्सीजन देता है। ऑक्सीजन यानि प्राण-वायु । इस रहस्य को जानकर हमारे ऋषियों ने पीपल के वृक्ष की परिक्रमा करने और पीपल के वृक्ष के निचे बैठकर तप करने का मार्ग खोजा । इसका दूसरा वैज्ञानिक कारण यह भी था की पीपल के पत्तों में जो तरल पदार्थ होता है और मनुष्य में जो तरल पदार्थ होता है वह एक समान है । अतः दोनों के बीच तारतम्य स्थापित हो जाता है और ज्ञान की धारा प्रवाहित हो उठती है । इसलिए हमारे ज्ञानियों ने कहा की मनुष्य को संकल्प लेकर पीपल के वृक्ष की परिक्रमा करनी चाहिए । इस परिक्रमा के दौरान आप ऑक्सीजन के प्रभाव क्षेत्र में रहते हैं । एक तरह से पत्तों से ऑक्सीजन झरनों की तरह झरता है और आप उसमें सराबोर हो जाते हैं। आपके मन में शांति आ जाती है, संकल्प के प्रति आस्था जाग जाती है और तनाव स्वतः ही खत्म होने लगता है । -- आचार्य रंजन( ज्योतिषाचार्य & वास्तु विशेषज्ञ ),बेगुसराय (बिहार)

Monday, May 4, 2009

* भारत में प्रमुख शनि देव के सिद्ध-स्थल *

* कोकिला वन में स्थित सिद्ध शनि मन्दिर


* शिन्ग्नापुर (महाराष्ट्र ) गाँव में सिद्ध शनि पीठ

* ग्वालियर स्थित सिद्ध शानैश्चरा पीठ मंदिर
* चांदनी चौक (दिल्ली) स्थित शनि मंदिर



* काशी-धाम में स्थित सिद्ध शनि मंदिर
- आचार्य रंजन( ज्योतिषाचार्य & वास्तु विशेषज्ञ ), न्यू प्रोफ़ेसर कोलोनी , दिनकर नगर ,बेगुसराय (बिहार), Mob. No.: +91-9431236090 & Tel. No. : 06243-243901
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