~आचार्य रंजन
बृहस्पति मध्यम गति से जितने समय में एक राशि का संचरण करता है , उसे बाहर्श्पत्य वर्ष कहते है और इसे ही संवत्सर भी कहा जाता है । संवत्सरों की कुल संख्या साठ (६०) है , जिनकी पुनरावृति होती रहती है ।
विवाह , यज्ञ , अनुष्ठान आदि शुभ कार्यों के आरम्भ में संवत्सर का उच्चारण अवश्य किया जाता है ।
* साम्वात्सरों का नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं : -
१- प्रभव
२- विभव
३- शुक्ल
४- प्रमोद
५- प्रजापति
६- अंगीरा
७- श्री मुख
८- भाव
९- युव
१०- धाता
११- ईश्वर
१२- बहुधान्य
१३- प्रमाथी
१४- विक्रम
१५- वृष
१६- चित्रभानु
१७- सुभानु
१८- तारण
१९- पार्थिव
२०-व्यय
२१- सर्वजित्
२२- सर्वधारी
२३- विरोधी
२४- विकृति
२५- खर
२६- नंदन
२७- विजय
२८- जय
२९- मन्मथ
३०- दुर्मुख
३१- हेम्लंबी
३२- विलम्बी
३३- विकारी
३४- शार्वरी
३५- प्लव
३६- शुभकृत
३७- शोभन
३८- क्रोधन
३९- विशवावशु
४०- पराभव
४१- प्लवंग
४२- किलक
४३- सौम्य
४४- साधारण
४५- विरोधकृत
४६- परीधावी
४७- प्रमादी
४८- आनंद
४९- राक्षस
५०- नल
५१- पिंगल
५२- कालयुक्त
५३- सिध्धार्थ
५४- रौद्र
५५- दुर्मति
५६- दुंदुभी
५७- रुधिरोदगारी
५८- रकताक्षी
५९- क्रोधन
६०- क्षय
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* प्रत्येक वर्ष की संवत्सर निकलने की विधि : -
जिस विक्रमी संवत् में संवत्सर जानना हो , उसमें ९ जोड़कर प्राप्त संख्या को ६० द्वारा भाग देने पर , जो शेष बचे , उसमें १ जोड़ देने पर उस वर्ष का या उस विक्रमी संवत् के संवत्सर का नाम ऊपर दिए गए सूचि में से प्राप्त हो जाएगा ।
उदाहरणार्थ : यदि विक्रम संवत् २०५६ में संवत्सर जानना हो , तो संवत् २०५६ में ९ जमा कर देने पर २०६५ वर्ष बने । इनको ६० द्वारा भाग देने पर ३४ लब्धि तथा शेष २५ बचे , इस संख्या में १ जमा कर देने से संख्या २६ बनी । उपरोक्त तालिका अनुसार विक्रम संवत २०५६ में २६ वां अर्थात् नंदन नामक संवत्सर होगा ।
Saturday, August 15, 2009
* जानें उत्तरायण एवं दक्षिणायन *
~~आचार्य रंजन , प्रो० कोलोनी , बेगुसराय , बिहार
एक संवत् ( वर्ष ) में दो अयन होते हैं । १- उत्तरायण एवं २ - दक्षिणायन । जब तक सायन सूर्य मकर राशि से मिथुन राशि पर्यंत रहता है , तब तक छः मासों की अवधी को उत्तरायण काल कहा जाता है । यह अवधी लगभग २२ दिसम्बर से प्रायः २०/२१ जून तक रहती है । उत्तरायण में शिशिर , वसंत और ग्रीष्म - ये तीन ऋतुएँ होती हैं । उत्तरायण को देवताओं का दिन माना जाता है , इसीलिए इसी काल में नूतन गृह प्रवेश , दीक्षा ग्रहण , देव प्रतिष्ठा , यज्ञ , व्रत - नुश्ठान , विवाह , मुंडन आदि कार्य प्रशस्त माने जाते हैं । जब तक सायन सूर्य कर्क राशि से धनु राशि पर्यंत संचारन्सील होता है , तब तक इन छः मासों की अवधी को दक्षिणायन काल कहा जाता है । यह अवधी प्रायः २१/२२ जून से २१ दिसम्बर तक लगभग रहती है । दक्षिणायन में वर्षा , शरद और हेमंत - इन तीन ऋतुओं का समावेश रहता है । यह अवधी देवताओं की रात्रि मानी जाती है । इसीलिए दक्षिणायन काल में मुंडन , यज्ञोपवित आदि विशेष शुभ कृत्यों का निषेध माना जाता है , परन्तु तामषिक प्रयोग हेतु प्रशस्त माने जाते हैं ।
एक संवत् ( वर्ष ) में दो अयन होते हैं । १- उत्तरायण एवं २ - दक्षिणायन । जब तक सायन सूर्य मकर राशि से मिथुन राशि पर्यंत रहता है , तब तक छः मासों की अवधी को उत्तरायण काल कहा जाता है । यह अवधी लगभग २२ दिसम्बर से प्रायः २०/२१ जून तक रहती है । उत्तरायण में शिशिर , वसंत और ग्रीष्म - ये तीन ऋतुएँ होती हैं । उत्तरायण को देवताओं का दिन माना जाता है , इसीलिए इसी काल में नूतन गृह प्रवेश , दीक्षा ग्रहण , देव प्रतिष्ठा , यज्ञ , व्रत - नुश्ठान , विवाह , मुंडन आदि कार्य प्रशस्त माने जाते हैं । जब तक सायन सूर्य कर्क राशि से धनु राशि पर्यंत संचारन्सील होता है , तब तक इन छः मासों की अवधी को दक्षिणायन काल कहा जाता है । यह अवधी प्रायः २१/२२ जून से २१ दिसम्बर तक लगभग रहती है । दक्षिणायन में वर्षा , शरद और हेमंत - इन तीन ऋतुओं का समावेश रहता है । यह अवधी देवताओं की रात्रि मानी जाती है । इसीलिए दक्षिणायन काल में मुंडन , यज्ञोपवित आदि विशेष शुभ कृत्यों का निषेध माना जाता है , परन्तु तामषिक प्रयोग हेतु प्रशस्त माने जाते हैं ।
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